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कवि हरीश आचार्य के ग़ज़ल संग्रह ‘निष्काम कर्म के नग़में’ का मुखपृष्ठ सजेगा अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चितेरे की पेंटिंग से

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31 Dec 21
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कवि हरीश आचार्य के ग़ज़ल संग्रह ‘निष्काम कर्म के नग़में’ का मुखपृष्ठ सजेगा  अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चितेरे की पेंटिंग से

बांसवाड़ा, कवि हरीश आचार्य द्वारा प्रकाशित की जा रही साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन की श्रृंखला में चौथी प्रकाशनाधीन कृति  ग़ज़ल संग्रह ‘निष्काम कर्म के नगमें’ का मुखपृष्ठ अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि के चित्रकार एवं कला समीक्षक गुरु डॉ. विद्यासागर उपाध्याय द्वारा सृजित बहुरंगी चित्रकृति से सुशोभित होने का गौरव पाएगा। इसके लिए डॉ. उपाध्याय ने कवि हरीश आचार्य के आग्रह पर विशेष रूप से आकर्षक एवं अनूठी पेंटिंग तैयार की है।

यह चित्रांकन ग़ज़ल संग्रह की शीर्षक ग़ज़ल ‘‘निष्काम कर्म के नग़में गाएँ, दिव्य प्रेम की अलख जगाएँ’’ में अन्तर्निहित विषय वस्तु के अनुरूप ही अमूर्त, सूक्ष्म एवं दार्शनिक भावों से ओत-प्रोत है। डॉ. विद्यासागर उपाध्याय मूलतः बांसवाड़ा जिले के परतापुर के मूल निवासी हैं तथा दशकों से जयपुर में कला जगत के विभिन्न आयामों से जुड़े हुए हैं। उनकी पेंटिंग्स देश-विदेश के कद्रदानों में अत्यन्त लोकप्रिय हैं तथा कई देशों में उनके कला कर्म एवं चित्रकारिता के प्रशंसक हैं। ढेरों राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित मशहूर कलाविद् डॉ. उपाध्याय की कलाकृतियां देश-दुनिया में विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शित होने के साथ ही महत्वपूर्ण संग्रहालयों में सुशोभित हैंं।

कला समीक्षक डॉ. उपाध्याय ने ‘कला, कला के लिए’ सिद्धान्त अवधारणा के अनुरूप अमूर्तता और समकालीनता को समर्पित भाव से अपनी चित्रकृतियों में स्थान प्रदान किया है। अमूर्त कला में घटना से ज्यादा महत्व विचारों को दिया जाता है।

डॉ. उपाध्याय के अनुसार कलाकार का प्रेरणा स्रोत कुछ भी हो सकता है किन्तु अमूर्त चित्रण हूबहू चित्रण न करके प्रभाव को चित्रित करने का ही दूसरा नाम है। अमूर्त कला कालातीत है। पारम्परिक कला के प्रति विद्रोह है। प्रकृति चित्रकार डॉ. उपाध्याय की आदर्श रही है। रंगों एवं रूपाकारों का अनूठा संसार है अमूर्त चित्रांकन। अमूर्त कला जकड़न भरे चित्रण से मुक्ति प्रदान कर कलाकार के स्वप्निल संसार का रसास्वादन कराती है।

डॉ. उपाध्याय का कहना है कि उन्हें चित्रण हेतु कभी विशेष प्रकार के वातावरण की जरूरत नहीं रही। अपने दीर्घकालीन अनुभवों का निचोड़ सामने रखते हुए वे कहते हैं कि कला सदियों से अपनी जगह खड़ी है, बदली है तो मात्र हमारी सोच।


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