कोटा की बाल साहित्यकार डॉ. कृष्णा कुमारी बाल साहित्य पर अच्छा दखल रखती हैं और उन्होंने बाल साहित्य पर ही डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। जब मुझे यह ज्ञात हुआ तो मैंने उनसे समय ले कर इस विषय पर लंबी चर्चा की। साक्षात्कार में बाल साहित्य की उपयोगिता, प्रकार, शैली आदि पर जो तथ्य उभर कर आए उनके प्रमुख अंश प्रस्तुत कर रहा हूं।
आप साहित्य और बाल साहित्य को किस प्रकार देखती हैं के प्रश्न के जवाब में वे कहती हैं, समाज के अभिन्न अंग साहित्य जगत में बाल साहित्य का महत्व सदियों से रहा है। आदमी को इन्सान बनाने की प्रक्रिया में साहित्य की महत्त्पूर्ण भूमिका है । इस के द्वारा मानव के विकारों का परिष्कार होता है और वह उच्चतर जीवन जीने की ओर अग्रसर होने लगता है । इस प्रकार साहित्य मनुष्य को सुसंसकृत बनाते हुए सभ्यता से भी जोड़े रखता है । कहती हैं बाल साहित्य इस से थोडा भिन्न होता है । सम्पूर्ण वांडमय का आधार भी बाल साहित्य ही माना गया है । बाल साहित्य अर्थात बच्चों का साहित्य जो बालक के लिए रचा जाता है , बालक को आनंद चाहिए , मनोरंजन चाहिए , इस प्रकार बाल साहित्य का अर्थ हुआ ‘गद्य –पद्य में लिखी गई ऐसी रचनाएँ जिन्हें पढ़कर बालक आनादित हो उठें , उल्लसित हो जाये , उन की कल्पनाओं को पंख लग जाएँ । इसी के साथ बालक के सम्यक उन्नयन , सर्वांगीण विकास में सहायक हो, उसे सुसभ्य, सुसंस्कृत, चरित्रवान ,सुनागरिक बनाने में अहम् भूमिका निभाये , उस में विश्वबंधुत्व , मानवीय संवेदना का भाव जाग्रत करे तथा उस के भावी जीवन के लिए मार्ग प्रशस्त करें। डॉ. नामवर सिंह का उल्लेख कर बताती हैं कि उन्होंने कहा है उनके लिए बाल साहित्य तो वह है जो उन्हें हिलाए , दुलाये और दुलराये भी यानि वे ख़ुशी से झूम उठें ।
बाल साहित्य का महत्व आप कैसे आंकती हैं के सवाल पर डॉ. कृष्णा अनेक उद्धरणों के साथ कहती हैं बाल साहित्य, साहित्य का ही महत्त्वपूर्ण हिस्सा है और जो बालक के सम्यक उन्नयन की आधारशिला तैयार करता है | उसे प्रकृति से जोड़ता है ,बातों ही बातों में प्रेम , सहयोग , करुणा , सत्य , सद्भावना , संवेदना , साहस आदि मानवीय गुणों से बालक का साक्षात्कार करवाता है । मूलत, बाल साहित्य बच्चों को जीने की कला सिखाता है ,चीजों को देखने –परखने की नई दृष्टि देता है ।
कहती हैं डॉ. नागेश पांडेय ने बाल साहित्य की आवश्यकता को व्यक्त करते हुए लिखा है कि बच्चों को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने की दिशा में बाल साहित्य की अवर्णनीय भूमिका है । आज जब विश्व के समग्र राष्ट्रों में एक प्रतियोगिता का वातावरण है और विकास की आपाधापी में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है , ऐसे में बालक को एक सफल नागरिक के रूप में तैयार करने हेतु बाल साहित्य की आवाश्यकता विशेष रूप से बढ़ गई है । इसी परिपेक्ष्य में प्रख्यात बाल साहित्यकार हरिकृष्ण देवसरे का मानना है कि बाल साहित्य की तुलना माँ के दूध से की जा सकती है । जैसे बच्चा अपना पहला आहार माँ के दूध के रूप में लेता है वैसे ही उस का पहला बौद्धिक आहार माँ के मुहं से सुनी लोरी के रूप में बाल साहित्य होता है । जैसे बच्चे के स्वस्थ शारीरिक विकास के लिए माँ का दूध आवश्यक होता है वैसे ही उस के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए बाल साहित्य महत्वपूर्ण होता है।
उनका कहना है कि मूर्धन्य आलोचक डॉ. नगेन्द्र ने माना है कि पहले समाज में बालक का अस्तित्व खिलौने के रूप में था । उनको प्यार- दुलार तो मिलाता था लेकिन उसे समाज का एक अभिन्न अंग नहीं समझा जाता था । लेकिन आज के बालक की आवश्यकताओं में एक आवश्यकता बाल साहित्य की भी है । अर्थात बाल साहित्य में माँ के दुलार को महती जितना आवश्यकता है क्योंकि इस का पाठक एक बच्चा होता है और बच्चे को सर्व प्रथम माँ का प्यार , दुलार ही चाहिए |
श्री नाथ सहाय ने बाल साहित्य की आवश्यकता को बताते हुए लिखा है कि
बालक देश की आधारशिला है । इस की समुचित शिक्षा , संवेगिक व बौद्धिक विकास पर ही देश का विकास संभव है । प्रारम्भ से ही इन्हें राष्ट्रीय , जनतान्त्रिक मूल्य आधारित शिक्षा देने की आवश्यकता पड़ती है , जिससे एक जागरुक नागरिक के रूप में इन का उत्तरोत्तर विकास हो । इस दिशा में बाल - साहित्य की महत्तपूर्ण भूमिका है , जिस के द्वारा बालकों में स्वस्थ संस्कार प्रस्तिस्थापित हो सकें । अनुशासन , मर्यादा ,व्यवस्था की नींव बचपन में ही उचित बाल साहित्य द्वारा निर्मित की जा सकती है ।
वे कहती है इन सभी संदर्भों के प्रकाश में कह सकते हैं कि बाल साहित्य बच्चों के लिए अत्यावश्यक है । यह एक पथ प्रदर्शक की भाति काम करता है , बालकों के लिए अत्यंन्त उपयोगी है । डॉ. देवसरे के अनुसार बाल साहित्य बच्चों के लिए माँ के दूध जितना उपयोगी है । डॉ. नागेश पाण्डेय ने इसे बच्चों को सुनागरिक बनाने के लिए जरुरी माना है, वहीँ श्री नाथ सहाय ने बच्चों के समुचित विकास और नैतिक मूल्यों से जुड़ने के लिए बाल साहित्य की अहम् भूमिका को स्वीकार किया हैं । डॉ नगेन्द्र इसे बच्चो के लिए प्रमुख आवश्यकता मानते हैं |
उनका मानना है कि बालक किसी भी समाज के लिए आत्म स्वरुप होता है । इस नन्हें पौधे को जैसे खाद – पानी से सिंचित किया जायेगा , वो वैसा ही पल्लवित , पुष्पित और फलित होगा । अतः बाल साहित्य बच्चों का मनोरंजन करने के साथ साथ उन्हें आनंद प्रदान करता है , उन का ज्ञानवर्द्धन करता है , उन की कल्पनाओं , जिज्ञासाओं का शमन करता है , स्मरण शक्ति में एवं तर्क क्षमता में वृद्धि करता है । बौद्धिकता का विकास करके प्रकृति और पर्यावरण प्रेम भी जाग्रत करता है। बाल रचनाओं के द्वारा बालक अपने परिवेश को, चीजों को, सामाजिक गतिविधियों को , रिश्तों को बारीकी से जानने लगता है । बाल साहित्य उनकी प्रज्ञा को तीव्र करता है । वहीँ नई वैज्ञानिक तकनीकों से जोड़े रखता है
डॉ. कृष्णा कहती हैं कि सब से महत्त्पूर्ण बात कि बालकों का साहित्य एकल परिवारों में दादा –दादी , नाना –नानी की कमी को पूरी करते हुए, बच्चों के एकाकीपन को दूर करता है । बाल बालकों को जीवन जीने की कला सिखाता है । बाल साहित्य बच्चों के साथ –साथ प्रोढ़ों , नवसाक्षरों और इन से जुड़े अन्य व्यक्तियों के लिए भी आवश्यक माना गया है, जैसे दादा – दादी , नाना –नानी , माता – पिता , शिक्षक आदि । तभी तो वे अपने बालकों को कवितायेँ , कहानियां सुना सकेंगे और उन से जुड़ कर उन का प्यार पा सकेंगे । डॉ नागेश पाण्डेय ने इस परिपेक्ष्य में लिखा भी है कि बाल साहित्य केवल बच्चों के लिए ही नहीं , प्रोढ़ों , नवसाक्षरों के लिए भी सामन रूप से अपनी महत्ता सिद्ध करता है । वास्तविकता तो ये है कि बच्चे से जुड़े हर व्यक्ति के लिए बाल साहित्य का अध्ययन अपेक्षित है। सनातन काल से बाल साहित्य की आवश्यकता रही है और हमेशा रहेगी ।
बाल साहित्य की उपयोगिता पर उनका कहना है बाल साहित्य बालकों के लिए जितना आवश्यक है उतना ही उपयोगी भी । इस संदर्भ में डॉ. राष्ट्र बंधु का मानना है कि हमें चाहिये कि हम बाल साहित्य की उपयोगिया से समाज को परिचित कराएँ| आंगनबाड़ी में बच्चों को पहेलियाँ, लोरियां और कहानियों का प्रवेश क्रमबद्धता से नहीं है । शिक्षा में जे . टी. सी .,बी . टी. , सी . ,बी . एड . , एम् . एड .और पुस्तकालयों के लिए बाल साहित्य का ज्ञान ,शिक्षा को सामाजिकता से जोड़ सकता है| अत बाल साहित्य में जो मनोविज्ञान है उस से मनोचिकित्सा की सफलता सरलता से हो सकती है । स्वास्थ्य और चिकित्सा में भी बाल साहित्य का उपयोग चमत्कारी प्रभाव दिखा सकता है |
उक्त संदर्भों में बाल साहित्य की उपयोगिता पर कह सकते हैं कि बाल साहित्य बच्चों को खुशियों से भर देता है । बालकों की कल्पना शक्ति का विस्तार होता है । बाल साहित्य पढ़ने, देखने और सुनने से बच्चे कई प्रकार की कई कलाओं से सहज रूप से जुड़ जाते है| साथ ही बाल साहित्य लिखना भी सीख जाते है । बाल साहित्य से बालकों की क्रियात्मक क्षमता और सृजनशीलता में वृद्धि होती है ।
बाल साहित्य से बच्चों के अतिरिक्त समय का बहुत अच्छा सदुपयोग होता है।
वे मानती हैं कि बाल साहित्य पढ़ने से बलकों में स्वावलंबन , आत्मनिर्भरता ,अनुशासन , दृढता , साहस , मैत्री –भाव , सहयोग की भावना ,प्रेम आदि भाव स्वत ही जाग्रत हो जाते हैं । कहानियों , कविताओं , पहेलियों आदि के पठन – पाठन से बालको की स्मरण शक्ति बढती है । कहानी सुन कर मित्रों को या किसी और को सुनाने से उन की वाक कला , वाक चातुर्य में संवर्द्धन होता है । नाटकों के पठन और मंचन से अभिनय कला का विकास भी होता है । बाल- साहित्य को आत्मसात करने से बच्चे व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त करते हैं । बाल पहेलियाँ सुनने और हल करने से बच्चों का मानसिक विकास होता है , संतुष्टि मिलती हैं , चिंतन –मनन से द्वार खुलते हैं ।
बाल साहित्य की विशिष्टता पर चर्चा करता हूं तो वे कहती हैं कि बाल साहित्य की प्रथम विशिष्टता ये ही है कि वह बालकों के लिए होता है , क्योंकि बाल साहित्य सम्पूर्ण वांग्मय का अति महत्त्पूर्ण अंग है । बालक अपने आप में ही इस सृष्टि की विशिष्ट ईकाई है । बाल साहित्य बड़ों के साहित्य से अनेक प्रकार से भिन्न है , जो इस की विशेषताओं के फल स्वरुप ही है । इस संदर्भ में डॉ.नागेश पाण्डेय “संजय “ का कथन है कि बाल साहित्य सामान्य साहित्य का अंग होता हुए भी उस से सर्वथा पृथक है भाषा – शैली , शिल्प , उद्धेश्य , संवेदना , मनोवि ज्ञान और महत्त्व इत्यादि अनेकानेक दृष्टियों से दोनों में मूलभूत अंतर है । इसी संदर्भ में डॉ. श्रीप्रसाद के अनुसार बड़े और बच्चों की कविता में मूल अंतर संवेदना का है ।
वे कहती है कि स्पष्ट होता ,है, बाल साहित्य की भाव–पक्ष और कला–पक्ष के आधार पर अपनी अलग विशेषताएं है क्योंकि बालक और बड़ों की दुनिया हर दृष्टि से भिन्न होती है । जहाँ बच्चा कल्पनाओं के आकाश में विचरण करते नहीं थकता वहीँ बड़ों को यथार्थ के कठोर धरातल पर चलना पड़ता है । बाल साहित्य रस से परिपूर्ण , सहज , बच्चों की तरह मासूम होता है और इस के लिए बाल रचनाकार को उन की भाव भूमि पर उतर कर सर्जना करनी पड़ती है । बाल साहित्य जितना सरल होता है उस का सृजन उतना ही कठिन । इसी के साथ बाल साहित्य की अन्य विशेषताओं में उस का आकार में लघु होना भी है ,चाहे गीत हो , कहानी हो , नाटक हो या दूसरी विधा । ये इसलिए कि बालकों को शीघ्र याद हो सके और हमेशा स्मृति में रहे । बाल साहित्य का सकारात्मक होना इस की विशेष विशेषता है ।
बालक सदैव वर्तमान में जीता है , या फिर कल्पनाओं में । अत: बाल साहित्य वर्तमान के साथ भविष्य की संकल्पना को लेकर लिखा जाता है । बाल साहित्य, बच्चों के साथ–साथ बाल साहित्य प्रौढ , युवा , महिलाएं भी बड़ी रूचि से पढ़ते हैं और भरपूर आनंद लेता हैं अर्थात बाल रचनाएँ हर वर्ग को बहुत पसंद आती हैं । बाल रचनाओं की भाषा - शैली अन्त्यानुप्रास (तुकबन्दी) आदि बाल रचनाओं की प्रमुख विशिष्टताएँ हैं ।