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वल्लभाचार्य प्राकट्योत्सव पर उदयपुर में भव्य शोभायात्रा

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24 Apr 25
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वल्लभाचार्य प्राकट्योत्सव पर उदयपुर में भव्य शोभायात्रा

उदयपुर। पुष्टिमार्ग के प्रणेता श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु का प्राकट्योत्सव गुरुवार 24 अप्रैल को उल्लासपूर्वक मनाया जाएगा। अंतर्राष्ट्रीय पुष्टिमार्गीय वैष्णव परिषद के प्रदेश अध्यक्ष जयंती लाल पारीख एवं शहर अध्यक्ष भुवनेश भाई शाह ने इस संबंध में आयोजित बैठक में महाप्रभुजी के स्वरुप पर पत्रक का विमोचन किया।
परिषद के मीडिया प्रभारी ललित पारख ने बताया कि प्राकट्योत्सव पर गुरुवार शाम को भोग आरती के दर्शन पश्चात् श्री नाथजी की हवेली से भव्य शोभायात्रा निकाली जाएगी। शोभायात्रा में बैंड, तीन अश्व, श्रीनाथजी एवं महाप्रभुजी के चित्र से सुसज्जित दो बग्गी, श्वेत वस्त्र एवं ऊपरणा धारण किये पुरुष, मंगल कलश लिए महिलाएं शामिल होंगे। परिषद के राजेश बी मेहता ने बताया कि शोभायात्रा श्रीनाथजी की हवेली से प्रारम्भ होकर जड़िओ की ओल, घंटाघर बड़ा बाजार, भड़भुजा घाटी, तीज का चौक, अस्थल मंदिर तिराहा, खेरादीवाड़ा होते हुए पुनः श्रीनाथजी की हवेली पहुंचेगी जहाँ शयन दर्शन एवं बधाई कीर्तन होंगे तथा वैष्णवों को प्रसाद वितरण किया जायेगा. उत्सव की तैयारिओं में सचिव सुनील पारख, कोषाध्यक्ष लालजी साहू, राजेश बी मेहता, राकेश पारीख, नवनीत पारीख, कृष्णदास पारख लगे हुए हैं।
कौन हैं श्री वल्लभाचार्य
वल्लभ का अर्थ है प्रिय। वे भगवान श्री कृष्ण के साथ-साथ हर शिष्य के प्रिय हैं। दिव्य आत्माओं (आत्माओं) को श्री कृष्ण से मिलाने में मदद करने के लिए उन्होंने भगवान श्री कृष्ण के प्रति भक्ति और समर्पण का दिव्य मार्ग दिखाया है। उन्होंने साकार ब्रह्मवाद के दर्शन को प्रतिपादित किया है जिसे शुद्धाद्वैत (शुद्ध अद्वैतवाद) के रूप में भी जाना जाता है। वल्लभाचार्यजी के पूर्वज आंध्र प्रदेश में रहते थे। भगवान श्री कृष्ण ने उनके पूर्वज यज्ञनारायण भट्टजी को आज्ञा दी थी कि वे 100 सोमयज्ञ (अग्नि यज्ञ) पूरे होने के बाद उनके परिवार में जन्म लेंगे। यज्ञनारायणजी के वंशज लक्ष्मण भट्टजी, जो पवित्र नगरी वाराणसी में आकर बस गए थे, के समय तक परिवार ने 100 सोमयज्ञ पूरे कर लिए थे। श्री वल्लभाचार्यजी का जन्म लक्ष्मण भट्टजी के घर 1479 ई. (विक्रम संवत 1535) में चौत्र मास के कृष्ण पक्ष की 11वीं तिथि को चंपारण्य में हुआ था। उनकी माता का नाम इलम्मागारुजी था।
वल्लभाचार्यजी की शिक्षा सात वर्ष की आयु में चार वेदों के अध्ययन से शुरू हुई। उन्होंने भारतीय दर्शन की छह प्रणालियों की व्याख्या करने वाली पुस्तकों पर महारत हासिल की। उन्होंने श्री शंकराचार्यजी, श्री रामानुजाचार्यजी, श्री मध्वाचार्यजी, श्री निम्बार्काचार्यजी के साथ-साथ बौद्ध और जैन दर्शन की भी शिक्षा ली। वे सौ मंत्रों का उच्चारण करने में सक्षम थे, न केवल आरंभ से अंत तक बल्कि उल्टे क्रम में भी।
श्री वल्लभाचार्यजी ने हमारे दिव्य शास्त्रों - वेद, श्रीमद्भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भागवत महापुराण आदि के प्रति जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता के साथ सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। उन्होंने इन शाश्वत शास्त्रों का वास्तविक अर्थ भी बताया है। पारंपरिक वेदांतिक मान्यता में, एक आचार्य, आध्यात्मिक उपदेशकों का नेता, वह होता है जिसने श्ब्रह्मसूत्रश्, श्भगवद्गीताश् और श्उपनिषदोंश् पर अपने विचार और टिप्पणियां लिखी हैं।
विष्णुस्वामी संप्रदाय के अंतिम आचार्य बिल्वमंगल आचार्य के अनुरोध पर श्री वल्लभाचार्यजी ने विष्णुस्वामी संप्रदाय (रुद्र संप्रदाय) का आचार्य पद स्वीकार किया। ऐसा तब हुआ जब श्री वल्लभाचार्यजी ने प्रमुख दक्षिण भारतीय साम्राज्य - विजयनगर साम्राज्य के सम्राट कृष्णदेव राय के दरबार में ब्रह्मवाद की प्रसिद्ध बहस जीती। विष्णुस्वामी संप्रदाय के आचार्य होने के अलावा, वल्लभाचार्य ने श्रीनाथजी के आदेश अनुसार जीवों को प्रभु की शरण में लेने के लिए पुष्टिमार्ग की स्थापना की.इस तरह न केवल विष्णुस्वामी संप्रदाय बल्कि पुष्टि संप्रदाय के भी आचार्य बन गए।
जीवन काल में तीन बार भारत की परिक्रमा की तथा 84 स्थानों पर भागवत पारायण किया। उन स्थानों को बैठकजी कहा जाता हैं.

 


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