GMCH STORIES

पांच घंटे का सफर, बहता काव्य संगम

( Read 6961 Times)

15 Jan 25
Share |
Print This Page

जितेंद्र 'निर्मोही', कोटा

पांच घंटे का सफर, बहता काव्य संगम

नाथद्वारा से कोटा लौटते समय 6 जनवरी को कार का सफर काव्य से सराबोर हो गया। पांच घंटे कब बीत गए, इसका पता ही नहीं चला। साहित्य मंडल नाथद्वारा के राष्ट्रीय बाल साहित्यकार सम्मेलन और भगवती प्रसाद देवपुरा स्मृति समारोह के समापन के बाद यह यात्रा शुरू हुई। सफर का आनंद लेते हुए आनंद बक्षी का यह गीत याद आ गया:

“जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम,
वो फिर नहीं आते।”

सांझ के धुंधलके में मैंने रामेश्वर शर्मा 'रामू भैया' को छेड़ा। उनकी ग़ज़लों की शुरुआत मेरे मार्गदर्शन में हुई थी। उनके शेरों में गहराई और लोक की खुशबू होती है। उन्होंने एक ताजा ग़ज़ल सुनाई:

“जबसे उस मछली ने मेरे जाल में फंसना छोड़ दिया,
हमने भी दरिया के भीतर रोज़ उतरना छोड़ दिया।”

उनकी ग़ज़लों की रवानी और कहन दिल को छूने वाली थी। शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, राजा मेहदी अली खान जैसे गीतकारों की यादें ताजा हो उठीं। इस दौरान मैंने भी कॉलेज के दिनों की रचनाएं सुनाई। एक मुक्तक पढ़ा:

“यूं धीरे-धीरे खोलो ना अपने नक़ाब को,
निखर-निखर के आने दो शोख-ए-शबाब को।
ठहरो तो ज़रा बादलों से पूछ लूं सवाल,
पहलू में कैसे रख लिया था आफताब को।”

रामेश्वर शर्मा जी ने मुक्तक की प्रशंसा की और पुराने दिनों की यादें साझा कीं। सत्तर के दशक का वह दौर भी चर्चा में आया जब “पाकीज़ा” जैसी फिल्में और कैफ़ भोपाली जैसे शायर अदब का हिस्सा थे। मैंने उनकी स्मृतियों से जुड़े कुछ मुक्तक और शेर प्रस्तुत किए।

“बेहिजाबी हिजाब तक पहुंची,
ये तजल्ली नक़ाब तक पहुंची।
देखकर तेरी मस्त नजरों को,
मेरी तबियत शराब तक पहुंची।”

कैफ़ भोपाली का एक शेर भी याद आ गया:

“फूल से लिपटी हुई तितली को हटाकर देखो,
आंधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा।”

यह काव्य यात्रा सिर्फ सफर नहीं, बल्कि साहित्य, शायरी और पुरानी यादों का संगम थी। गाड़ी आगे बढ़ती रही, और कविताएं दिलों में उतरती रहीं। इस सफर ने साबित किया कि काव्य का रस किसी भी सफर को अविस्मरणीय बना सकता है।


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories :
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like