संजीव ‘मज़दूर’ झा का पहला काव्य संग्रह ‘फिर एक दुर्योधन ऐंठा है’ इन दिनों युवाओं में चर्चा का विषय बना हुआ है। वर्तमान सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं के आधार पर देखें तो कई महत्वपूर्ण कारणों से यह संग्रह एक अलग पहचान बनाता है। संग्रह में अधिकांश कविताएं सत्ता-संगठनों के विरोध में लिखी गयी है। एक तरफ जहां ये कविताएं वर्तमान शोषण के चरित्र को बेनकाब करती है वहीं दूसरी ओर अतीत की मानव विरोधी राजनीति पर प्रहार करते हुए भविष्य के प्रति सचेत भी करती है।
संजीव ‘मज़दूर’ झा की लेखन क्षमता इस रूप में भी अधिक प्रभावशाली नजर आती है कि अधिकांश कविताओं का स्वरूप शोषण से संबंधित होने के बावजूद सभी कविताओं में एक खास किस्म की विविधता है जिसे बहुत सूक्ष्मता से देखने की आवश्यकता होनी चाहिए। कवि की आरंभिक कविताएं यह इंगित कर देती है कि सम्पूर्ण संग्रह का मिज़ाज कैसा होगा?
कवि अपनी पहली कविता में लिखता है कि – “जब विकास नहीं था, दुनियाँ थी/ जब तंत्र नहीं था लोक था/ एक दिन फिर तुम नहीं होगे/ और हम होंगे।” प्रस्तुत कविता दिखने में सरल, सपाट मगर अपने भीतर मनुष्यता की एक ऐसी गहरी छाप की अप्रस्तुत उदघोषणा है, जो सहज ही शोषकों के लिए एक चुनौती पेश करता है। यहाँ सिर्फ कवि अपने लेखन-साहस का ही परिचय मात्र नहीं दे रहा बल्कि वह पूंजीवादी राजनीति को भविष्य के लिए चुनौती भी पेश कर रहा है। इस चुनौती को वही गंभीरता से समझ सकता है जिसे मानव जीवन के आरंभ और संघर्ष का का ज्ञान हो।
युवाओं की दृष्टि से देखें तो यह संग्रह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि कवि ने जिस पक्ष की वकालत की है वह पक्ष क्रूरता के विरोध का पक्ष है। जिस समय युवा बेरोजगारी, अशिक्षा और गरीबी से भयभीत होकर साहस खो रहा है, ठीक उसी समय संजीव ‘मज़दूर’ झा का यह काव्य संग्रह उनके भीतर साहस-संचार का कार्य भी करता है। वह कहता है कि – ‘हुआ नहीं आरंभ युद्ध जब/ यह पर्व विजयी कैसा है?/ नारायणी सेना के अभिमान में/ फिर एक दुर्योधन ऐंठा है। कवि के भीतर मनुष्य बनाम शैतान (पूंजीवादी राजनीति) की गहरी समझ है। शैतान जहां मनुष्यता को परेशान भर करने को ही मानव जाति पर अपनी जीत समझता है, वहाँ कवि यह स्पष्ट कर देता है कि मनुष्यता ने अभी युद्ध आरंभ भी नहीं किया है। कवि के भीतर का यह गहरा विश्वास उसके अतीत बोध और भविष्य को देखने की अद्भुत दृष्टि को जाहिर करता है।
ध्यान से देखें तो संग्रह के सभी शीर्षक दिलचस्प और अपने भीतर नयापन समेटे हुए है। ‘जे.एन.यू. की चरित्रहीन लड़कियां’ से लेकर ‘लाठी और सिर तक, ‘हे इरोम शोक मत मनाना’ से लेकर ‘बिरसा से संवाद’ तक सभी कविताएं एक अलग दृष्टिकोण पैदा करती है। ‘बेवकूफ़ औरत’ शीर्षक कविता में कवि ने भारतीय राजनैतिक संगठनों पर करारा प्रहार किया है। ‘बेवकूफ़ औरत / तुम अभी पैदा क्यों हो गई? / अभी नारीवाद जवान हुआ नहीं / मार्क्सवाद ने रंग पकड़ा नहीं / समाजवाद भटक रहा है /और तुम पैदा हो गई?’
मानव हित में राजनैतिक संगठनों पर इस प्रहार की आलोचना हो सकती है लेकिन देखना यह चाहिए कि कवि किस घटना से आहत होकर यह व्यंग्य कर रहा है? जब छोटी सी बच्ची की मृत्यु माँ की गोद में भूख से तड़प कर भात कहते हुए होती है, तब स्वाभाविक रूप से उन सभी संगठनों पर भी प्रहार जायज हो जाता है, जो सामाजिक होने का दंभ भरते हैं। कवि संगठनों के खोखलेपन को उजागर करते हुए उसके दायित्वबोध को पुनः स्मरण कराता है।
निष्कर्ष रूप में देखें तो संजीव ‘मज़दूर’ झा का यह संग्रह भारतीय पूंजीवादी राजनैतिक समाज की क्रूरता का साहित्यिक दस्तावेज़ भी है और प्रतिरोध की नई संस्कृति को स्थापित करने की समझ और साहस भी।