जरूरी नहीं बच्चा इंजीनियर और डाक्टर ही बने। अभिभावकों को समझना चाहिए कि हमारे बच्चे का किस और रूझान है उनकी काबिलियत है। और भी अनेक क्षेत्र हैं केरियर बनाने के लिए। समाज में वकालत, सीए, पुलिस, सेना, शिक्षा , कृषि, उद्योग, कंप्यूटर, साहित्य, कला, खेल, आदि कितने ही क्षेत्र हैं जिन्हें बच्चें अपने अभिभावकों से खुले मन से विचारी-विमर्श कर अपनी योग्यता के आधार पर चुन सकते हैं और जीवन को सफल और खुशहाल बना सकते हैं।
आत्महत्या की रोकथाम के जागरूकता अभियान में अपने ये विचार व्यक्त कर साहित्यकार मंजू किशोर 'रश्मि' कहती हैं
अविभावकों को अन्य बच्चों की कहानियां सुन कर और उनके पैकेज के आकर्षण में बंध कर ही अपना स्वयं का मन बना कर बिना समुचित योग्यता के अपने बच्चों पर केवल इंजीनियर या डॉक्टर बनने का ही बोझ नहीं लादना चाहिए। उन्हें जीवनयापन के अन्य विकल्पों पर भी बच्चें की योग्यता के आधार पर सोचना होगा।
अति हर चीज की बुरी
वह कहती हैं कोटा ने आज कोचिंग के क्षेत्र में देश में अपना नाम किया है। वही छात्रों की आत्महत्या की खबरें भी देश भर में पहुंचने से माहोल खराब भी होता है। इन्हें रोकने के लिए संबंधित सभी वर्गों, संस्थानों, हॉस्टल, अविभावक और प्रशासन आदि सभी को गंभीरता से सोचना होगा देश के हर राज्य के बालक-बालिकाएं यहाॅं आते हैं। जिसमें बड़े संस्थान में एलन, रेजोनेंस, आदि है इनके अलावा भी कई और संस्थान है। जिन्होंने हमारे देश सेवा के लिए हजारों इंजीनियर, डाक्टर दिए हैं। पर कहते हैं ना अति हर चीज की बुरी होती है वहीं हमारी संस्थानों के साथ हुआ और पढ़ने आने वाले छात्रों के साथ भी। इसी अति के कारण आये दिन कोचिंग छात्रों की आत्महत्या की खबर पढ़ते सुनते हैं। कभी छत से कूद पड़े,कभी पंखे से लटक गये। इतनी हृदय विदारक घटना को कहने सुनने से ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं तो जिन माता-पिता के साथ गुजरती है वो कैसे सहन करते होंगे ? नैसर्गिक विकास का माहोल बने
मंजू कहती हैं कोचिंग संस्थान कीअति महत्वाकांक्षा से बनाई गई योजनाएं जटिल है समय का प्रबंध इतना लम्बा और कड़ा है की छात्र को खुल कर सांस लेने का समय नहीं मिल पाता। सुबह छः से बच्चा शाम पांच बजे तक लगातार क्लास में पढ़ता है। पूरे सप्ताह का ये रूटिन और फिर संडे को टेस्ट होता है। टेस्ट का रिजल्ट सार्वजनिक रूप से घोषित किया जाता है जिससे बच्चें मानसिक रूप से प्रताड़ित होने लगते है। अपने आप को साबित नहीं कर पाने की कुंठा उन्हें घेरने लगती है।
बच्चों पर दबाव नहीं
मंजू कहती हैं उधर रिजल्ट में कम अंक से अभिभावक बच्चे को और मेहनत करने की सलाह देते। कई अन्य बातें करते जैसे तुम्हें इतनी सुविधाएं उपलब्ध हैं। तुम पर हम कितना पैसा लगा रहे हैं। तुम पढ़ते नहीं हो, क्या करते हो। हमारी सारी आशाएं तुम पर ही टिकी हैं। तुम्हारा सलेक्शन नहीं हुआ तो हम अपने रिश्तेदारों को क्या मुंह दिखाएंगे आदि। वो अपने बच्चे की मानसिक स्थिति , तबियत खाने पीने आदि की चिंता भूल जाते हैं। बस एक ही घुन में रहते हैं बस कैसे भी हो सलेक्शन हो जाएं।
बच्चों की बात सुने
उनका कहना है जब की बच्चे को माता पिता से आशा होती है वो उसकी बात सूने और उसकी मानसिक तनाव और असफलता होने के कारण को समझेंगे। जब ऐसा नहीं होता है तो बच्चा अकेला पड़ जाता है। उसे लगने लगता है माता-पिता, दोस्तों परिवार को बस मुझसे अधिक मेरे सलेक्शन कि चिंता है मेरा कोई महत्व नहीं है। मेरी चिंता और परवाह और मेरे होने न होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। आपने अखबार में छपी खबर पढ़ी भी होगी। कितने ही बच्चे हैं जिन्होंने सूसाइड करने के पहले नोट लिखे। जिसमें वो माता पिता की अपेक्षा पर खरे न उतरने की बात लिखते हैं। आप देखेंगे की कितने बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने सूसाइड करने से पहले घर पर बात की । जब बच्चे डिप्रेशन की ओर मुड़ जातें हैं।डरे सहमें वो माता - पिता से, भाई - बहन से या दोस्तों से अपनी पीड़ा कहते भी हैं। इस दवाब समय निकलने पर सब कुछ ठीक हो जाएगा। ऐसा मान लेते हैं धीरे-धीरे बच्चा इस माहौल में में एडजस्ट हो जायेगा। कुछ बच्चे एडजस्ट हो भी जाते।
समय प्रबंधन हो
वह कहती हैं जब अविभावक बच्चे की नहीं सुनते हैं तब बच्चा अवसाद और निराशा में आखिरी विकल्प आत्महत्या ही चुनाव करता है। इसके लिए अभिभावकों और कोचिंग संस्थान दोनों को ही गंभीरता से लेना चाहिए। कोचिंग संस्थान को अपने नियम कानून और समय प्रबंधन की ओर ध्यान देना चाहिए। कोचिंग का माहौल दमघोटू न होकर नैसर्गिक विकास का माहोल बनाए। उसमें मनोरंजन, साहित्य,कला आदि से जुड़ाव का प्रबंध किया जाये। नहीं तो हमारे बालकों के भविष्य पर तो प्रश्न चिन्ह लगा ही है वहीं संस्थान की साख भी गिरी है।
महत्वपूर्ण पहलू यह भी
वह कहती हैं दूसरा पहलू देखें तो अभिभावक भी अपने सपने पूरे करने के लिए इतने अधीर हो उठते हैं ।आज तो छः कक्षा से ही बच्चे को कोचिंग क्लास को सौंप देते। भूल जाते हैं की स्कूल की पढ़ाई का बेसिक ज्ञान। सहपाठियों के साथ जुड़ाव, सामाजिक बेसिक गुण, खेल खेल में धैर्य और सहनशक्ति का विकास नहीं हो पाता है साथ ही शारीरिक और मानसिक भावनात्मक नैसर्गिक विकास रूक जाता है जिससे बच्चों में कुंठा, डिप्रेशन, अपराध,नशा इन्टरनेट क्राइम आदि की ओर मुड़ जाते हैं।
इनके कई उदाहरण हमारे सामने आयें है छात्रों की गैंग ने मार-पीट, छीना-छपटी, यहाॅं तक हत्या तक में कोचिंग छात्रों का नाम भी इनमे सामने आता है।
अंततः उनका सुझाव है कि इंजीनियर और डॉक्टर बनने की अंधी दौड़ में शामिल नहीं हो कर अविभावक और बच्चे जीवन यापन के अन्य विकल्पों पर ध्यान दें, छोटी उम्र से बच्चों को घर से दूर कोचिंग के हवाले नहीं करें और बच्चों की समस्या और मन की बात को पूरी तरजी दें। कोचिंग संस्थान भी बच्चों के नैसर्गिक विकास का माहोल बनाए।
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डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवम् पत्रकार, कोटा