मरू लोक सांस्कृतिक हो पर्यटन

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Published on : 27 Sep, 23 04:09

-लक्ष्मीनारायण खत्री

मरू लोक सांस्कृतिक हो पर्यटन

मरू प्रदेश की लोक संस्कृति का सौंदर्य दर्शनीय है। विश्व के कला एवं पर्यटन प्रेमियों के लिए यह इलाका पुरानी जीवंत सभ्यता विरासत का खजाना है। एस सीमांत इलाके के चप्पे-चप्पे में रीति रिवाज, त्यौहार, गीत संगीत, नृत्य, परिधान, आभूषण, मूर्तिकला, हस्तशिल्प, कृषि एवं पशुपालन, झोपड़ो में बसा जनजीवन, लोक देवी देवताओं के मंदिर, शिलालेखों इत्यादि में लोक कला की अनुपम झलक देखने को मिलती है यदि थार इलाके की लोक संस्कृति पर्यटन को देश एवं विश्व के सामने पेश किया जाए तो ग्रामीण इलाके में घर बैठे लोगों को रोजगार से संपन्नता आ सकती हैं।
जहां तक बात जैसलमेर के पर्यटन व्यवसाय की है यहां का सोनार किला, हवेलियां, जैन मंदिर, कुलधरा तथा खाभा, सम एवं खूड़ी के धोरौं में ऊंट की सफारी इत्यादि का पर्यटक को भ्रमण कराया जाता है। लेकिन 38000 किलोमीटर क्षेत्र में फैले रेत के टीलाके बीच सैकड़ों गांव बसे हैं जिनकी लोक कला एवं संस्कृति तथा विरासत समृद्ध है जोकि पर्यटन विकास में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं।
कुलधरा एवं खाभा के अलावा पालीवालों के 82 गांव की स्थापत्य कला, सीमा पर आए प्राचीन किले जिसे गणेशिया जो की मिट्टी से बना दुर्लभ दुर्ग हैं। घोटारू सफेद ईट की पक्की जुड़ाई, किशनगढ़ पक्की ईंटों का बना अद्भुत कला का दुर्ग तथा मोहनगढ़ लाठी  लखा रणधा हड्डा इत्यादि भी ऐतिहासिक किले हैं जिन्हें आज आवश्यकता है विश्व समुदाय के सामने लाने की।
मरू क्षेत्र के ग्रामीण इलाके का लोकजीवन अनूठा है, बेजोड़ है, कलात्मक हैं। यहां जन्म, मृत्यू, विवाह, त्यौहार इत्यादि के मौके पर संस्कृति सजीव होती है। पर्यटक के रूप में जो से देखता है वह एक उमंग व ताजगी महसूस करता है। इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत एवं परंपराएं, जनजातीय एवं आदिवासी समुदायों, राजपूतों, सिंधी मुसलमानों, लंगा एवं मंगनियार इत्यादि समुदाय में विशेष तौर से देखी जा सकती हैं।
यहां के ग्रामीण इलाके में हुए एवं तालाब से पानी लाती महिलाएं, घास एवं मिट्टी के बने झोपड़े, गाय बकरी एवं ऊंट को चराते पशुपालक, दीवारों पर बने मांडणा कला, लोक वाद्य एवं गीत व भोजन कला एवं मान मनवार, सिंधी समुदाय की जरी एवं कांच के काम की कशीदाकारी, ऊंट एवं घोड़े का श्रृंगार आदि लोक संस्कृति की अनुपम झलक है।
यहां के गांव में पानी सरंक्षण की परंपरा आज भी जिंदा है। यहां के खड़ीन, तालाब, कुएं, बावङिया तथा विविध लोक देवी देवताओं के पवित्र पूजनीय मंदिर व स्थान, मेघवालों के भजन, वाणीया, पाबूजी की पड़ का नृत्य एवं गायन वादन यहां की विभिन्न लोक कलाओं के उदाहरण है आज आवश्यकता है इसे विश्व पर्यटन मैप पर उजागर करने की।
मरुस्थल जैसलमेर की प्राकृतिक विरासत भी दर्शनीय है यहां के रेत के धोरे, पेड़ पौधे, झाड़ियां, घास, जीव जंतु जैसे गोडावण, हिरण, तीतर, सांडा आदि के अलावा सैकड़ों प्रकार के प्रवासी पक्षी यहां के ग्रामीण इलाके के तालाबों पर पड़ाव के लिए आता है जिसे अब तक पर्यटन नक्शे पर नहीं दिखाया गया है।
शहरों एवं महानगरों के प्रदूषण से परेशान देश विदेश के लोग जीवन में एक नई ताजगी के लिए दूरस्थ गांव की सैर करना सुख एवं आनंद की अनुभूति के लिए आवश्यक महसूस करते हैं। रात्रि में आकाश में टिमटिमाते हुए तारे देखना या चांद देखना दिल में समा जाता है।
पर्यटक गांव में चूल्हे पर बाजरे की रोटी पकते हुए देख स्थानीय मिठाइयां सब्जियां तरह-तरह के पकवान पसंद करते हैं।
गांवों में लोक सांस्कृतिक पर्यटन बढ़ने से यहां की हस्तशिल्प कलाओं को नया बाजार मिलेगा। यहां कुम्हार कला, सुनार कला, लकड़ी की कला, बकरी के बालों की दरी, राली, गद्दी, तकिया, थेले आदि परंपरागत कलात्मक वस्तुएं खूब बनती हैं। जिसके विक्रय से ग्रामीणों को घर बैठे रोजगार मिलेगा। पर्यटन के माध्यम से हाथ से बनी वस्तुओं को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिलेगी जिससे निर्यात व्यापार को भी प्रोत्साहन मिलेगा।
जैसलमेर का ग्रामीण क्षेत्र लोक कला, संस्कृति, विरासत, इतिहास, शिल्प कला का सुहावना कोष है। यहां पर्यटन विकास की जबरदस्त संभावना है। वहीं लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिल सकता है तथा संपन्न ता आ सकती हैं।
आज आवश्यकता है सरकार व प्रशासन ग्रामीण लोक सांस्कृतिक पर्यटन विकास की ठोस विकास योजना बनाएं। साथ ही स्थानीय नई पीढ़ी को पर्यटन व्यवसाय विकसित करने के लिए व्यावहारिक प्रशिक्षण भी देना चाहिए।


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