जहां देश में वर्षा शुरू होते ही बाढ़ आने, छोटे बड़े बांध टूटने, सड़के नदियों की तरह भरने एवं बहने के समाचार सुनने को मिलते हैं। वर्षा का पानी यत्र तत्र बहकर नष्ट हो रहा है या कीचड़ में तब्दील होकर बीमारियां फैला रहा है। वहीं थार के मरुस्थल जैसलमेर में वर्षों पहले पालीवाल जाति के अनुभवी किसानों ने वर्षा के पानी को एकत्रित कर संरक्षित कर ना केवल पीने के लिए उपयोग लिया बल्कि बचाए हुए पानी का सदुपयोग कर खेती व पशुपालन में संपन्नता हासिल की थी जो आज समाज व सरकार के वर्षा जल संग्रहण के अधिकारियों के सामने प्रेरणादाई सीख है।
वर्षा के पानी की पालीवालो ने भगवान की तरह साधना की उन्होंने पानी की एक-एक बूंद को फालतू बहने से रोका तथा पीने के पानी के तालाब बनाए जो पानी बच जाता था उसके खड़ीन यानी कि छोटे छोटे हजारों बांध बनवाए तथा उसमें पानी को रोक कर नाले निकालकर खेती की।
यह किसान जाति से ब्राह्मण थे जो की शताब्दियों पहले पाली से जैसलमेर आकर बस गए थे। इन्होने रेगिस्तान में अपने 84 गांव बसा लिए थेl इन किसानों के पास वेदिक ज्ञान था। इसी ज्ञान के बल पर मरु प्रदेश में बहुत कम बरसने वाली वर्षा की एक-एक बूंद को मिट्टी व पत्थर की पाल बांधकर गंगाजल की तरह सहेज कर रखा तथा सदुपयोग लिया।
खड़ीन एक तरह का तालाब होता है इसके निर्माण के लिए ढलान वाले क्षेत्र में विपरीत दिशा में बांध या धोरा, पाल बनाकर पानी एकत्रित कर संरक्षित किया जाता है। इन खड़ीनो से आसपास की जमीन पर नालो द्वारा पानी पहुंचाकर हजारों बीघा भूमि पर खेती की । स्थानीय भाषा में खेत को जोतने को खड़ना कहते हैं कालांतर में इन किसानों के बांध खड़ीन कहलाए। इनके बांध, वर्षों बीतने के बाद भी मजबूत व जिंदा है। इन बांधों की निर्माण की तकनीकी एवं वास्तु कला दर्शनीय है।
वर्षा के पानी से किसान एक वर्ष में दो फसलें पकाते। वर्षा ऋतु में ग्वार मूंग मोठ तिल बाजरा व मतीरा तथा शरद ऋतु में गेहूं चना सरसो बोते थे।
पालीवाल नाराज हो कर जैसलमेर से चले गए लेकिन उनके बनाए गए तालाब कुवे बावड़िया खड़ीन मंदिर मकान शमसान इत्यादि विरासत आज भी जिंदा है। सैकड़ों वर्षों के बाद भी यहां जल सरक्षण हो रहा है जो कि एक मिसाल है।
पालीवालो के खड़ीन से धरती में भी खूब मीठा पानी रिसकर संचय होता था जिससे धरती का जलस्तर बढ़ता रहता था तथा भरपूर पानी आसपास के कुओं में आता था तथा गर्मी में प्यास बुझाता था ।
पालीवाल जल संग्रहण के बल पर खेती की कमाई से संपन्न थे ।उनके दो मंजिलें मकान थे वह भी पत्थर के पक्के। गांव की धर्मशालाएं, छत्रिया व अन्य खंडित इमारतें बड़ी चौड़ी सड़कें इनके संपन्न होने के प्रमाण है। जल को अमृत की तरह उपयोग लाने वाले पालीवाल इतने धनी थे कि राजा को भी कर्ज देने की हैसियत रखते थे।
पालीवालों की जल सरंक्षण की पद्धति से मरु क्षेत्र की प्रकृति पर्यावरण को भी खूब लाभ हुआ। स्थानीय जीव-जंतु के अलावा गाय बकरी भेड़ और ऊंट पालन को भी खूब बढ़ावा मिला तथा पेड़-पौधे वह घास भी खूब पनपी।
वर्षा के पानी के संरक्षण से पालीवाल समुदाय में आई खुशहाली से सरकार व समाज को सीख लेनी चाहिए तथा जल चेतना जगानी चाहिए।