कलम के सिपाही कभी तटस्थ नहीं होते :वेदव्यास

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Published on : 30 Jul, 24 15:07

प्रेमचंद जयंती 31 जुलाई पर विशेष 

कलम के सिपाही कभी तटस्थ नहीं होते :वेदव्यास

    कभी हिंदी के मूर्धन्य कवि गजानन माधव मुक्तिबोध के संदर्भ में सुप्रसिद्ध  व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने कहा था कि मुक्तिबोध सक्रिय बेईमान और निष्क्रिय ईमानदार लोगों के गठबंधन के सताए हुए हैं। आज मुक्तिबोध और परसाई दोनों ही इस दुनिया में नहीं हैं और 21वीं शताब्दी के भूमंडलीकरण के मुक्त व्यापार के दौर में हमारा साहित्य जगत इसी अपवित्र महागठबंधन से पीड़ित है। बदलते भारत की किसी भी समस्या, चुनौती और प्रश्न पर लेखक को मौन देखकर, आज भी मुझे लगता है कि लेखक समय से मुठभेड़ करने की जगह समझौते और समर्पण अधिक कर रहा है। एक आत्ममुग्ध नायिका की तरह। इसीलिए वह न तेरा है न मेरा है और साहित्य, समाज और समय का है। हिंदी जगत में तीन-तेरह की ये बीमारी 2014 के बाद बहुत दयनीयता से फलफूल रही है और सभी तरफ सक्रिय बेईमान और निष्क्रिय ईमानदार अपने-अपने मोर्चों पर मारधाड़ से ही प्रचार और सदगति का मोक्ष और मुनाफा तलाश कर रहे हैं।

   बहरहाल! साहित्य के बाजार में लेखक और संस्कृति कर्मी अब इसलिए अप्रासंगिक हो गए हैं कि उन्होंने अपना दीन ईमान छोड़ दिया है और बौद्धिक ऐय्याशी का तानाबाना पहन लिया है ताकि गति से पहले सुरक्षा बनी रहे। ये भी इतिहास है कि पहली बार देश की राजनीति और सामाजिक- आर्थिक परिवर्तन के संग्राम में (1936) प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई थी तब कथाकार प्रेमचंद ने साहित्य के उद्देश्य को लेकर कहा था कि साहित्य तो राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है और कोई मनोरंजन तथा महफिल सजाने का कारोबार नहीं है। तब से लेकर अब तक वामपंथी और मार्क्सवादी विचारधारा के ऐसे सभी संगठन (प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, सांस्कृतिक मंच, आदि) भारत की सभी भाषायी चेतना में वामपंथी पार्टियों के अत्यधिक हस्तक्षेप और  अंतर्विरोधों से विकलांग होकर बिखर चुके हैं और व्यक्तिवाद तथा बाजारवादी व्यवस्था की बहती गंगा में डुबकी लगा रहे हैं। विचारधारा के मरने की घोषणाएं कर दी गई हैं और लेखक ने सभी विकल्प खुले हैं का अवसरवादी रास्ता पकड़ लिया है। कांग्रेस के लिए 1977 में संसद कवि श्रीकांत वर्मा और नौकरशाह कवि गिरिजा कुमार माथुर ने इंदिरा गांधी के आपातकाल में कभी राष्ट्रीय लेखक संगठन बनाया था लेकिन तब वामपंथी लेखक संघों ने आपातकाल के आगे हथियार नहीं डाले थे और कांग्रेस समर्थक श्रीकांत वर्मा का यह सपना टूट गया था। मैं खुद भी इसी चक्कर में आपातकाल के तहत आकाशवाणी की नौकरी खो चुका हूं अतः ये कहना चाहता हूं कि 1990 में सोवियत संघ के विभाजन और समाजवाद के धराशाही होने के बाद भारत में जो भूमंडलीकरण का मुक्त बाजार शुरू हुआ तब से हमारे यहां साहित्य में विघटन, पलायन और सक्रिय बेईमानी और निष्क्रिय  ईमानदारी का गठबंधन बड़ा है तथा धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और समाजवादी सपनों का संविधान कमजोर होना शुरू हुआ है जो आज खुल्ला खेल फर्रुखाबादी बन गया है। आश्चर्य तो यह है कि राष्ट्रीय स्वयं संघ, जन संघ और भाजपा प्रणीत तथाकथित अखिल भारतीय साहित्य परिषद आज भी टूटी और बिखरी नहीं है अपितु 2014 के बाद तो साहित्य, संस्कृति, कला, संगीत, शिक्षा, विज्ञान और सूचना प्रसारण एवं इतिहास के क्षेत्र में खुलकर सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्रवाद का बिगुल बजा रहा है और नया भारत भी बना रही है। सच ये है कि  दक्षिण पंथ 1925 से लगातार एकजुट रहा है लेकिन हम और हमारी लोकतांत्रिक समाजवादी और धर्मनिरपेक्षता साहित्य तथा सांस्कृतिक चेतना का आंदोलन आपसी फूट और व्यक्तिवादी अहंकारों से निरंतर टूटा है। ऐसे कठिन दौर में मेरा अनुभव और अनुरोध कहता है कि कल इस नए भारत का क्या होगा ? जहां आज संसद से सड़क तक कोई विपक्ष नहीं है, जनपथ से राजपथ तक कोई हस्तक्षेप नहीं है और साहित्य, संस्कृति और शिक्षा के परिसर में कोई रविंद्रनाथ, सुब्रह्मण्यम भारती, प्रेमचंद, कैफी आजमी, महाश्वेता देवी, महादेवी, मीरा और मुक्तिबोध अथवा परसाई नहीं है। मुझे लगता है कि भारत में साहित्य, संस्कृति, शिक्षा, स्वतंत्रता और सत्य के प्रयोगों पर अंधा युग मंडरा रहा है क्योंकि हम चुप हैं, डरे हुए हैं और नफा-नुकसान के बाजार तथा जनविरोधी विचार में फंसे हैं और साहित्य, समाज और समय को धोखा दे रहे हैं। क्योंकि हजारों साल की गुलामी ने हमारी मनुष्य होने की सच्चाई को प्रत्येक सत्ता-व्यवस्था ने दलित, आदिवासी, महिला और अल्पसंख्यक बनाकर लड़ाया- भड़ाया है। शब्द की विश्वसनीयता को कुचला है और आज बाजार में बेचा है। अब यहां तस्लीमा नसरीन और गणेश लाल व्यास उस्ताद की चेतना और परंपरा कहां है जो गोविंद गुरु तथा कबीर की निर्गुण धारा को पुनः प्रवाहित कर सके? जब हमने भारत-पाक विभाजन भी देखा है, हम आपातकाल में भी संगठित थे और हम सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा में भी नहीं थे तो फिर हम चुप और तमाशबीन क्यों हैं ? कौन हमें लड़ा रहा है और कौन हमें सरकार तथा बाजार की कठपुतली बना रहा है?


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