लोक जीवन की धड़कनों से सुगबुगाती दिल छू लेती हैं राजेन्द्र केडिया की कहानियां

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Published on : 20 Sep, 24 11:09

डॉ.प्रभात कुमार सिंघल, कोटा

लोक जीवन की धड़कनों से सुगबुगाती दिल छू लेती हैं राजेन्द्र केडिया की कहानियां

 राजस्थान मूल के रचनाकार राजेंद्र केडिया का साहित्य जगत में आगमन 65 वर्ष की आयु में हुआ तब कलम उठाई तो बिना रुके अनवरत चल रही है। लोक कथाओं की शैली में लिखी गई इनकी कहानियों का कथानक सर्वथा नया और मौलिक है जो किसी भी पुरानी लोक कथा का पुर्नलेखन कदापि नहीं है। ये हिंदी, राजस्थानी, संस्कृत, बांग्ला,अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाओं के ज्ञाता हैं। इन भाषाओं की लगभग 15 हजार से अधिक दुर्लभ पुस्तकों एवं पाण्डुलिपियों का संकलन इनके निजी संग्रह में उपलब्ध है। इनके लेखन का उद्देश्य पाठकों को देश एवं राजस्थान की पुरातन लोक-संस्कृति एवं परंपरागत जीवन- मूल्यों से अवगत कराना।
 कहावतों का संसार :
आपने अपनी ज़मीन से जुड़ी राजस्थानी भाषा की बीस हजार से अधिक मौलिक कहावतों का संग्रह किया है। कहते हैं, कहावतें और मुहावरे उनसे जुड़ी कथाएं बीते समय की साहित्यिक धरोहर हैं। राजस्थान में साहित्य में कहावतों का विपुल भंडार है। चार कोस पे पानी बदले........के बावजूद कहावतों का मूल स्वरूप, मर्म और भाव ज्यों का त्यों बना हुआ है। पिता के मुंह से सुने कहावतों और मुहावरों से इनके मन में राजस्थानी भाषा से लगाव बढ़ता गया। जाति एवं पेशेगत जनजातियों की अधिकांश कहावतों में व्यंग्य भरे होते हैं जो उस तथागत जाति विशेष के गुण स्वभाव को उजागर करते हैं। इन्होंने झूठे और अहंकार भरे व्यवहार को व्यंग्य बाणों का निशाना बनाया है, तो बदले हुए सामाजिक परिवेश में उसी चिंतनीय स्थिति पर अफसोस भी जताते हैं।
      कहावतों में विद्वेष की भावना नहीं होती और न ही वे किसी का महिमा मंडित करने के लिए होती है। समाज और जाति की विसंगतियों को उजगार करना ही उनका उद्देश होता है। कहावतें भोगे हुए यथार्थ और प्रचलित धारणाओं पर आधारित होती हैं। राजस्थान की समस्त ललित कलाएं, गायन, नृत्य,संगीत, चित्रण आदि निम्न वर्गों द्वारा ही संरक्षित किए गए हैं। राजस्थान की लुप्त होती आत्मा को तलाशती और अपनी मूल संस्कृति की पहचान करती कहावतों के मूल विषय वस्तु परख संकलन का उद्देश्य और अभिप्राय जाति पेशे और ऊंच नीच की भावना को दूर कर आपस में सद्भाव और भाई चारे की भावना को बढ़ाना है।
        संग्रहित कहावतों को  विषय-वस्तु परक शोधपूर्ण दस खंडों में सहेजने पर महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।  " जाति और पेशेगत जनजातियों" 2300 मौलिक कहावतों का प्रथम खंड एवं  "पशु-पक्षी, कीट-पंतग" विषयक द्वितीय खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं। लगभग 700- 800 पृष्ठों के इन दो खंडों में कहावतों के पात्र के बारे में विशद भूमिका, साहित्यिक संदर्भ, शब्दावली एवं मुहावरे भी संग्रहित किए गए हैं। अन्य खंड, रिश्ते-नाते, अंग-प्रत्यंग, भाव-भावना, घर-गृहस्थी, ईश्वर- धर्म, रीति-रिवाज आदि विषयक शीघ्र प्रकाश्य हैं।
 कहानियां ;
ये कहते हैं धरती पर सबसे खूबसूरत लोक राजस्थान में है। न कश्मीर न पेरिस।
यहां के रहने वाले बूढ़े उम्रदराज इंसान हैं जिनके चेहरे की  झुर्रियों और सलवटों में न जाने किस किस जमाने की कितनी कहानियां छिपी हैं और उनको सुनने और लोगों तक पहुंचाने में पूरी उम्र नाकाफी है। बचपन में खेलने की उम्र में इन्होंने  पुस्तकों को अपना साथी बना लिया था। पहले बाल पत्रिकाएं फिर अंग्रेजी के कॉमिक्स,अंग्रेजी के टार्जन और साथ ही दुर्गा प्रसाद खत्री कुशवाहा और आनंद प्रकाश जैन के साथ, बाद में प्रेमचंद और मोंटो के बीच  लेखन शैली को उभारने का मौका मिला।
जाट रे जाट , कहानी संग्रह :
 इनका राजस्थानी जाट कहानी संग्रह उनके राजस्थान की जमीन और भाषा से जुडे होने का जीवन्त प्रमाण है। फतेहपुर शेखावाटी, राजस्थान के प्रति अपना कृतज्ञता ज्ञापन है ’जाट रे जाट‘ कहानी संग्रह। इस संकलन में छत्तीस कहानियाँ हैं जो एक पंक्ति में लोकोक्ति लगती है और विस्तार में जीवन अनुभवों का निचोड। कलेवर में छोटी किन्तु सोच में सशक्त कहानियाँ लोकाभिमुख होने की वजह से बहुत प्रारम्भ में ही पाठक की पकड को मजबूत बना देती हैं। कथ्य की ताकत वस्तु विधान और भाषा दोनों रूपों में अपनी विशेषता प्रकट करती है। कौतुहल और रवानगी से भरी इन कहानियों में जाट एक चरित्र भी है और प्रतीक भी। चरित्र के रूप में वह सरल, भोला, हँसमुख है और प्रतीकात्मक दृष्टि से प्रबल, साहसी, श्रमशील और जीवनेच्छा से भरा है।
        उदाहरणार्थ  " साँड " कहानी में धेलिये जाट ने ठाकर की चालाकी पकड ली। वह जानता था खीर ठाकर ने खायी थी किन्तु दुनिया के सामने यह नाटक रचना चाहता है कि चन्द्र-देवता ने भोग लगाया। "जाट और ससुराल" कहानी में जाट-जाटनी ने ससुराल जाने का विचार किया। विचार अच्छा था किन्तु ससुराल वालों की चालाकी भी ताड ली। ससुर ने जंवाई को बेटा कहकर खेत में काम कराया तो जाट जंवाई ने फसल बेचकर रकम खुद रख ली। इसलिये कि ससुर को यह भान हो सके कि उसने गलती की है। ’बेटा और जंवाई‘ एक नहीं होते। ’पावणाँ सू पीढी कोनी चालै, जवायाँ सू खेती कोनी चालै।‘  कहानी "जाटनी और हाकम " में हाकम की अकड और जाटनी की समाजोपयोगी बातें ध्यान खींचती हैं। "जाट और बावलिया" में जाट ने अपनी बुद्धिमत्ता का सबूत दिया। जाट और गुरु, कुआँ, जूतियाँ, बातों के कारीगर जैसी प्रशंसनीय कहानियों में जाट के अलग-अलग चेहरे हैं जो यह दर्शाते हैं कि जीवन की पाठशाला में अनुभवों की किताब से ही सफल और श्रेष्ठ परिणाम मिलते हैं।
वाह रे जाट - कहानी संग्रह 2  :
इनकी पुस्तक " वाह रे जाट" की कहानियाँ लोक जीवन की भावभूमि पर उकेरी गई मौलिक और नितांत काल्पनिक कहानियां हैं। कहानियां किसी व्यक्ति,जाती अथवा समाज का नहीं वरन आदमी के सोच और विचार का प्रतिनिधित्व करती है। कहानियों का भूत आम धारणा के प्रतिकूल भोला और भला महसूस होता है। संग्रह में 35 कहानियां संकलित हैं। नारी मन की उलझन - सुलझन का बयान करती कहानी " झुमका ' का संदेश है कि नारी मान - मर्यादा और उचित - अनुचित के विचार
में पुरुषों से कहीं उम्दा और ऊंची समझ रखती है। " भूत का मन" और " जाट और भूतनी " कहानियां भी मन की मर्यादा और उसके धर्म को उजगार करती हैं। ब्याज की माया, रामजी का लठ, जाट यमराज, जाट और बड़ा गेला, जाट और न्याय, हिसाब बराबर, जाटनी और खवासण , सो टके की बात कहानियां भी संग्रह की उम्दा कहानियां हैं। इनकी कहानियों में जाट पात्र किसी वर्ग का नहीं वरन माटी से जुड़ा फकत मेहनती इंसान, मजबूत सोच, अपने अधिकार के लिए लड़ने को प्रेरित करने, निरंतर संघर्ष करने और अन्याय का प्रतिकार करने का प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार जाटनी , नारी के अदम्य साहस, असीम धैर्य और अपराजेय अस्मिता का प्रतीक है। परायी चीज पर नज़र रखने वाली दुरात्माओं  को वह बिना लाठी उठाये सबक सिखाना जानती है।
जाट - जाटनी के कथानको में इन प्रतीकों के ताने - बाने में बुनी कहानियों का मर्म है यथार्थ से नहीं भटकें। यूं कह सहते हैं कि कहानियों में हमारा अपना ही अक्स दिखाई देता है। 
अमलकांटा- कहानी संग्रह :
अमलकांटा कहानी संग्रह में 264 पृष्ठों में लोक जीवन की धड़कनों से सुगबुगाती 20 बड़ी राजस्थानी कहानियां संकलित हैं। संग्रह की कहानियां डोर से बंधी, माटी की पुतली, अकलिया, हरकारा, अंत का पंत, आठवी सुगंध और बस एक दिन पढ़ते ही बनती हैं।
" इन कहानियों में."..........लेखक लिखता है , खोए हुए बचपन को तलाशती हुई कुछ कहानियां यादों के उन कोनों में झांकती हैं, जहां बढ़ती हुई उम्र का अहसास, अक्सर अंधेरा बन कर छाया रहता है। "सांस की फांस"  अमूमन हर घर और हर बहू के कलेजे में धंसी होती है और हल्की हल्की टीस भी रहती है। घरेलू जिंदगी की धड़कन और रौनक भी वही फांस होती है, इसे मानने में उज्र नहीं होना चाहिए क्योंकि यही लोकजीवन की वास्तविकता है। आप ही सोना,आप ही सुनार, अंगीठी मूल - चक्र, ऐरन नाद और बिंदु हथौड़ा । सब कुछ उसी पर गढ़ा जाता है।  " एरेन" कहानी इसी गोरखबानी का प्रतीक है। मन के ही सोने में मन का ही खोट मिलने के पहले , कोई ऐरन का नाद सुने, तो खोट मिलाए ही नही। प्रेम कसूंबा होता है। चखने वाले को ही नहीं चखाने वाले को भी उसका नशा उग जाता है। उसके कसूमल रंग की रंगत उधड़ती है, तब रंगे जाने वाला, रंगणहार और रंगणारी ही नहीं, देखने वाले भी उसके रंग में रंग जाते हैं। " कंटीली चंपा का पहर" कहानी ढाई आखर के पाठ का पहला अक्षर है।  रिश्ते - नातों का जिक्र करती हुई कहानियों में , मन की कड़वाहट को प्यार की मिठास से घोल कर , कौन पी पाया है और किसने होंठों से लगा कर छोड़ दिया, इसका अंदाज़ा पाठक को सहज ही लगता है। अमल कांटा एक ऐसी दूतरफी धारवाली चुभन है जो कहने वाले को भी चुभता है और सुनने वाला भी उसकी चुभन महसूस करता है। 
मदन बावनिया- उपन्यास
यह उपन्यास मदन बावनिया किरदार की कहानी कहती है जो आम आदमी होते हुए दूसरों के कद से डरना छोड़ देता है। तब वह बावनिया नहीं रहता, बड़ों - बड़ों के कंधे पर सवारी गांठ सकता है और उससे भी ऊंचे आसमान झांक सकता है। उपन्यास के आखिर में उपन्यास में प्रयुक्त कतिपय शब्दों के अर्थ और टिप्पणियां दी गई हैं। इस उपन्यास का डूंगरगढ़, बीकानेर के मदन सैनी द्वारा राजस्थानी में अनुवाद किया है, जिस पर मदन सैनी को राजस्थान भाषा साहित्य और संस्कृति अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया। 
जोग-संजोग - उपन्यास :
राजस्थान के नमक के विराट व्यवसाय, हजारों बैलगाड़ियों के टांडों, उनके संचालक बनजारों तथा संस्कारवान सेठ-साहूकारों की जीवन शैली पर आधारित इनका शोधपूर्ण उपन्यास "जोग-संजोग" है। यह उपन्यास राजस्थान के पुराने सेठ साहूकारों और व्यापारियों की परम्पराओं, उनके कठिन परिश्रम, निष्ठा और ईमानदारी के साथ अलग पहचान बनाने वाली व्यापारिक सूझ - बुझ और जोखिम उठाने की प्रवृति पर आधारित है। धार्मिक और नैतिक मूल्यों को स्थापित करते हुए उनकी सादगी भरी जीवन शैली और दानशीलता की मिसाल को दर्शाता है। उनके इन गुणों का उल्लेख इतिहास में भी कई जगह मिलता है। इसी की महत्वपूर्ण कड़ी है इनका यह उपन्यास जिसे इन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों और परंपराओं का गूढ़ अध्ययन कर लिखा है। इनके इस उपन्यास पर शोध कर सुश्री आस्था चौहान के शोध-प्रबन्ध पर, दयाल बाग शिक्षण संस्थान (डीम्ड यूनिवर्सिटी), आगरा द्वारा डॉक्टरेट की डिग्री प्रदान की गई है।
 प्रकाशन :
इनका प्रथम कहानी संग्रह ’तीसरा नर’ सन् 2005 में प्रकाशित हुआ। इनके प्रकाशनों में दो हिंदी उपन्यास जोग-संजोग  और मदन बावनिया, चार कहानी संग्रह तीसरा नर, जाट रे जाट, वाह रे जाट, अमलकांटा प्रकाशित हुए हैं।  राजस्थानी कहावतों का संसार खण्ड-1 (जाति, पेशे और जनजातियां) एवं  खण्ड-2 (पशु-पक्षी, कीट-पतंग) प्रकाशित हैं। कहावतों के अन्य खंड सहित इनका कहानी संग्रह " तलब " और " मेरा कलकत्ता, मेरा बड़ा बाजार"( संस्मरण),  उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कलकत्ते के सामाजिक परिवेश और प्रवासी राजस्थानी समाज की पारंपरिक जीवन-शैली से परिचित कराती पुस्तक प्रकाशनाधीन हैं। आप सामाजिक पत्रिकाएं ’रिलीफ’, ’आनन्द पत्रिका’ एवं ’अग्र-संदेश’ के मानद संपादक हैं। 
सम्मान :
 सरस्वती पुरस्कार (सरस्वती पुस्तकालय, राज.), संत सुंदरदास सम्मान, राष्ट्र भाषा परिषद सम्मान एवं अन्य पुरस्कार-सम्मान आदि से सम्मानित किया गया। आपको विभिन्न संस्थाओं द्वारा इनके लेखन से संबंधित विभिन्न विषयों पर व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया जाता है।
 परिचय :
ग्रामीण और शहरी संस्कृति में पले - बड़े हुए
लोक जीवन के रचनाकार राजेंद्र केडिया का जन्म फतेहपुर शेखावाटी के मूल निवासी सीताराम केडिया माता रुक्मणि केडिया के परिवार में 4 जनवरी 1941 को हुआ। इन्होंने  स्नातक, साहित्य रत्न, विधि एवं वाणिज्य में स्नाकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की। ये गंभीर पुस्तक प्रेमी और पाठक हैं। प्रारंभिक शिक्षा के समय से ही साहित्यिक विधाओं के प्रति इनकी रुचि रही। इसी रुचि ने इन्हें कहानी, संस्मरण, नाटक, उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया।  इनके दिल में राजस्थान का लोक बसा है, जिसकी छाप इनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर दिखाई देती हैं। इन्होंने 2010 में अपने कपड़े का व्यवसाय बंद कर दिया और तब से वर्तमान समय तक निरंतर साहित्य सृजन में लगे हुए हैं। आपका साहित्य मारवाड़ी समाज में विशेष चाव से खूब पढ़ा जाता है।
 


साभार :


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