अतुल मलिकराम (लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार)
देश में हाल ही में बदलाव की लहर देखी जा रही है। पहले शहरों के नाम बदले गए, अब न्याय की देवी की मूर्ति का भारतीयकरण कर दिया गया है। पुरानी मूर्ति में आँखों पर पट्टी और हाथ में तराजू व तलवार दिखाई देती थी, जबकि अब भारतीय संदर्भ में इसे बदलकर संविधान हाथ में दे दिया गया है। यह बदलाव प्रतीकात्मक रूप से अच्छा है, लेकिन क्या इससे न्याय व्यवस्था में सुधार होगा?
क्या केवल प्रतीक को बदलने से समस्या का समाधान होगा? देश की न्याय व्यवस्था में अभी भी कई गंभीर कमियाँ हैं। लंबित मामलों की संख्या 2024 में 5.1 करोड़ से अधिक हो चुकी है, जिनमें कई मामले 30 साल से भी पुराने हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, यदि मामले इसी गति से चलते रहे तो 324 साल तक लंबित मामलों का निपटारा नहीं हो पाएगा।
इसके साथ ही, न्याय व्यवस्था में कई पुराने और अप्रासंगिक नियम हैं, जिनके कारण फैसले समय पर नहीं हो पाते। उदाहरण के लिए, सीआरपीसी का एक नियम, जो आरोपी या गवाह की अनुपस्थिति में सुनवाई को आगे बढ़ाने की अनुमति नहीं देता, लगभग 60% आपराधिक मामलों में देरी का कारण बनता है। ऐसे मामलों के चलते निर्दोष लोगों को भी सजा भुगतनी पड़ती है। एक उदाहरण के तौर पर, बिहार में एक व्यक्ति को 28 साल बाद जेल से बरी किया गया, लेकिन उस मामले में असली अपराधी का पता नहीं चल सका। इसने न केवल उस व्यक्ति का जीवन बर्बाद किया, बल्कि पीड़ित परिवार को भी न्याय नहीं मिला।
न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए केवल प्रतीकों में बदलाव से काम नहीं चलेगा। हमें पुराने नियमों में बदलाव, न्यायालयों में निर्णयों की गति को तेज करने और विचाराधीन कैदियों के लिए नए नियम बनाने होंगे। इसके अलावा, तकनीकी उपायों जैसे ऑनलाइन सुनवाई, केस मैनेजमेंट सिस्टम और फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स की आवश्यकता है। जजों की संख्या बढ़ाकर और अदालतों में पारदर्शिता बढ़ाकर भी सुधार किया जा सकता है, क्योंकि आज भी जजों की कमी के कारण मामलों का निपटारा नहीं हो पा रहा है।
न्याय की देवी का स्वरुप बदलना प्रतीकात्मक रूप से अच्छा है, लेकिन असली बदलाव तभी संभव है जब निर्णयों की गति तेज हो और नागरिकों को समय पर न्याय मिले। न्याय का असली अर्थ है निष्पक्ष और समय पर फैसले देना, और यही असल बदलाव है।